अंतर्मन
अंतर्मन को छुआ ही था, कि चल दिए !
आए थे, तो कुछ पल साझा कर लेते,
देख तुम्हें आँखों को ऐतबार तो हो पाता,
दिल के कोने का, सूनापन
अभी हल्का भी ना हुआ था,
कि मुँह मोड़ा और चल दिए !
रुक लेते अगर पलभर,
तो दिल को तसल्ली से,
बहलाने के कुछ बहाने मिले गए होते,
मुस्कुरा लेते, बह लेते उन पलों में, ‘पर’!
तुम तो आए, अंतर्मन को हिलाया,
उम्मीद बनाई, आस जगाई और चल दिए !
– अनिता चंद
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