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आग़ाज़

“महिला दिवस”
आग़ाज़ !!
बुलंदियों को छूना है मुझको
खोलने हैं बन्द दरवाज़े
तोड़नी हैं दीवारें के बन्धन
आज़ाद होकर खुली हवा में
पंख पसरने हैं मुझको,
मगर ! मेरी अभिलाषा का
आग़ाज़ होगा कब?

जननी हूँ, स्नेहभरी नारी हूँ,
सृष्टि अधूरी है मुझ-बिन
जानती हूँ ये सब मगर
हौंसले कमज़ोर हों तो,
नवजीवन का आग़ाज़ कैसा ?

तेरे, रीति-रिवाजों ने
कमज़ोर बना दिया है मुझको,
चाहूँ अगर बदलना देनी पड़ती है,
अग्नि परीक्षा मुझको,
कठपुतली बनाकर रखा है
तोड़ना है हर एक बन्धन,
पर इन आडंबरों से लड़ने का
साहस कब होगा?

पखेरू उड़ता ये मन सहसा
आह्वान कर उठा एक रोज़
पूछ बैठा ख़ुद से, ख़ुद ही
इंतज़ार किसका करती है ‘तू’
क्यूँ घुट-घुट के मरती है तू,
ये जन्म-जन्मों के बंधन हैं
कोई ना आएगा तुझे जगाने,
उठ जाग नींद से, पहचान अपने को
तोड़े दे ये बंधन सारे !

तब आग़ाज़ हुआ नव जीवन का,
अंतरात्मा से निकली ये ध्वनि,
तू शक्ति है, तू भक्ति है,
तू कुछ भी कर सकती है,
तू कमज़ोर नहीं, तू लाचार नहीं,
तू सम्पूर्ण सृष्टि है !

मुक्त हुई उस मोह-माया से,
तब प्रण किया स्वयं से,
नव जीवन का आरम्भ यही है,
हर पहलू को करना है सार्थक,
अब खिल-खिलाकर हँसती हूँ मैं,
उन बन्द दरवाज़ों में भी
बे-परवाह महसूस करती हूँ मैं,
नित्य नए उमंग लिए झूमती हूँ,

आज की नारी हूँ मैं,
मेरा पुनरुत्थान यही है,
सूरज की किरणों की चमक से,
नवनिर्मित उदित सार्थक ये जीवन
इस जीवन का आग़ाज़ यही है
– अनिता चंद

Published inअभिव्यक्ति

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