“उगता सूरज ढलती शाम”
मैंने, सुबह की किरण से पूछा,
क्या मिज़ाज है !
किरण की चमक ने फ़रमाया,
मेरी चमक तो तुम पर पड़ी है,
तुम ही बताओ, !
पर मैं तो अपनी मस्ती में मदहोश,
सोचते मुस्कुराते यूँ दिन ढल गया,
ना कुछ खोया, ना कुछ पाया,
फिर देखा आसमान की ओर सिर उठाकर,
सवाल वही खड़ा था !
ढलती शाम की ख़ूबसूरती भी कुछ कम ना थी,
दिल ने फिर वही दोहराया आवाज़ निकली,
अरे, समय तो निरन्तर है !
इससे पहले की वो चमक
ढलती और रात्रि में समा जाती,
मुझे ख़याल आया !
क्यूँ ना मैं अपना कुछ वक़्त,
उन लोगों को दूँ,
जिन्होंने मुझे ये ख़ुशियाँ दी हैं,
अपना बहुमूल्य समय गँवाकर
यहाँ तक पहुँचाया है !
मिलो, उनसे कभी उनकी ढलती शाम में
रोशनी बनकर,
बिता लो कुछ वक़्त अपना,
दूसरों की ख़ुशियाँ बनकर,
सुबह-शाम हर जीवन में
एक पहेली की तरह आई है,
आती रही है, और आती रहेगी !
– अनिता चंद
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