पंछी-
प्रातः नमन चह-चहकना,
फिर अम्बर में उड़ जाना
शाम हुई झुंड बनाकर,
वापस अपने बसेरे का रूख ले,
उसी दरख़्त में समा जाना ।
सुकूँन की साँसें लिए ये दोहराना !
इस धरा पर मेरा भी है आशियाना,
बस ! यह अहसास ही काफ़ी है
डूबती शाम को पनाह मिल जाए,
कर्म ऐसा कर जा ! ऐ इंसाँ,
कि जीवन व्यतीत न हो, बल्कि
मनमोहक जीवन जीने का,
बहाना बन जाऐ !
ईंट-पत्थर से बनता है मकान,
घर बनाने में उम्र गुज़र जाऎ !
ख़ुशहाल बसे निवास की ख़ुशी का
अहसास ही काफ़ी है ।।
बेज़बान पंछी भी जानता है
अपना वो ठिकाना !
दिनभर सैर-सपाटा कर,
छूँकर अम्बर,वापिस पहुँच ही जाता है
जहाँ उसे है जाना !
इन्सान हों, या हों परिंदे,
हाँ, यह अहसास !
धरा पर मेरा भी है आशियाना,
यह अहसास ही काफ़ी है !!
-अनिता चंद /2018
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