मंज़िलों पर पहुँचों तो समझना!
कर रहा है, प्रार्थना कोई तुम्हारे लिए,
प्रार्थना का न कोई धर्म, न वर्ण,
न रिश्ता, न ही कोई पैमाना होता है,
प्रार्थना का रिश्ता तो ‘दिलों का दिल से होता है,
दिल से प्रार्थना करने वालों के कोई निशा नहीं होते,
ये तो कभी आँखों से, तो कभी आँसू से बयान होता है,
झुकता है जब, सिर शिद्दत से आगे उसके,
क़बूल हो जाएें ‘दुआ’ न जाने कब
इसका न कभी इज़हार होता है
महसूस होता है, नज़रों में अपनों की,
लग जायें कब किसके,
मुक़दर को ‘दुआऍ’ किसकी
पाने वाला भी उससे अनजान होता है,
क़िस्मत से मिलता है साथ,
दुआओं के दम भरने वालों का,
संजोए रखना ये ख़ज़ाना, ऐ मेरे अज़ीजॊं
इसका साथ मिलना न बार-बार होता है
बहती हैं दुआएें ख़ुशनुमा हवा बनकर
मुक़ाम पर जब पहुँचों तो समझना
कर रहा है, प्रार्थना कोई तुम्हारे लिए,
क्योंकि, प्रार्थना करने वालों का ,
साक्षात्कार नहीं होता,
‘प्रार्थना’ का प्रवाह तो,
आशीर्वाद और प्यार में होता है !!
-अनिता चंद
‘प्रार्थना’
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