बदलते एहसास
‘मेरी गली के चौरहे पर
जमकर ‘जमघट’ हुआ करता था
घड़ियाँ न थीं कलाईयों में
हर आने जाने वाली रेलगाड़ी से
पहर का अनुमान हुआ करता था,
टेलिविज़न नहीं थे हर घर में फिर भी पुराना ज़माना
सारे दुनिया की ख़बरों पर मिलकर
विचार विमर्श हुआ करता था,
शरारते तो तब भी किया करते थे हम,
पर हर आँख में बुज़ुर्गों की नज़रों का
लिहाज़ हुआ करता था,
कौन बनेगा, कौन लायक है
हर घर के आँगन की आवाज़ों से ही
अनुमान लगा करता था, नया दौर
पैसे का महत्व तो था तब भी
पर, प्यार का कोई मोल न था
दिलों में पैसे की जगह
प्यार बसा करता था,
कठिनाईयाँ भरी थी ज़िन्दगी
पर हर तीज- त्यौहारों में खुलके
हर्ष उल्लास का एहसास हुआ करता था,
लाउड्स्पीकर के गाने से, आवाज़ॊं से
शादी-विवाह का पैग़ाम मिला करता था,
नानी, दादी का दुलार किसी एक से नही
सारे जमघट से स्नेह का स्पर्श मिला करता था,
इंटरनेट का ‘आई’ मतलब मैं-मैं न था
‘वी’ में हम-हम में सारा चौरहा समाया करता था
मेरी गली के चौराहे पर जमकर ‘जमघट’ हुआ करता था
तेरे-मेरे का भेद न था
बस अपनेपन और बंधुत्व के अहसास में ही
प्यार, सम्मान और स्नेह, बसा करता था,
– अनिता चंद
बदलते एहसास
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