संजोया था जो कल्पना में, उसका स्पर्श जब पाया मैंने,
कल्पनाओं से बातें करने लगी मैं,
हर राज़ को साँझा करके तुमसे
अब ख़ुद से स्नेह करने लगी मैं,
ये साँसे मेरी हैं, इसमें कल्पनाएँ तेरी है,
हर क्षण स्पर्श के एहसास के सपने बुनने लगी मैं,
दिन सप्ताह में, सप्ताह महीनों में बीतते-बिताते,
अपनी पलकों में सपनों की उड़ान भरने लगी मैं,
क्या होगा? कैसा होगा?
हर पल का ख़्याल रखते-रखते,
जिसने ये अवसर दिया, उस परमात्मा का
दिल ही दिल में शुक्रिया अदा करने लगी मैं,
समय आया जब तुझसे मिलने का,
तो उस क्षण की ‘वेदना’ के एहसास से ही डरने लगी मैं,
बचा रखा था ‘तुम्हें’ कठिनाइयों से, पाँचो ‘तत्वों’
धरती, आकाश, वायु ,जल, अग्नि से अभी तक,
माँ, मोह छोड़ इन तत्वों से रुबरू ‘तुमको’ अब कराना है
इन तत्वों के साथ तुम्हें अपना ‘अस्तित्व’ भी तो बनाना है
ये बात न कोई समझ पाता है,
ऐसा नहीं ये ‘वेदना’ बस मुझको ही है
तुमने भी तो, अपनी पीड़ा का,
मुझसे अलग होने पर, रो-रोकर एहसास कराया है
वो दिन ‘आख़िरी’ और ‘पहला’ था मातृत्व के लिए,
जब तुम रोए, जन्म लेने में, और तुम्हारे रोने को
आनंदित होकर, हर्षोल्लास से गले लगाया मैंने,
उस अनमोल पल ‘दुआ’ निकली हृदय से,
जीवन में कोई कष्ट न छू पाए तुमको,ये सोचकर
सुखद भावनाओं में स्वाँस भरने लगी मैं,
ये फ़रिश्ता है, या धड़कन है मेरी
ये फ़रिश्ता है, या धडकन है मेरी,
ये सोचकर हर्षोंउल्लास से प्रसन्नमुग्ध होने लगी मैं,
ख़ुद से स्नेह करती थी अब तक
पर अब! तुमसे प्यार करने लगी मैं,
स्पर्श मेरी कल्पना का सपनों में संजोया था, मैंने
अपने हाँथों में महसूस कर आज तुमको
सुखद ‘स्पर्श’ ममता का ,
ख़ुद को सम्पूर्ण समझने लगी मैं !
-अनिता चंद