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Month: February 2018

ज़िन्दगी और मौत

बेवजह बिन कहे चली जाती है,
सबको सदमे में छोड़ जाती है
जिस देह को हम अपना कहते हैं
उससे भी एक पल में बेवफ़ाई
कर जाती है
“मौत”

इसका न कोई अपना
न ही कोई पराया है
रहस्यमय अध्याय है
हर एक से अनजान है
न जाने कब छल कर जाए
“मौत”

बेपरवाह है पर अनमोल है
हर पल नई सीख है ज़िन्दगी
साथ है साँसों का
तो ख़ुशनुमा है
साथ छोड़ दे तो
यादों का मंज़र है
“ज़िन्दगी”

कुछ अहसास तले,
कुछ अरमान तले
हर दिन नई उमंग में
बिंदास जीते हैं हम

जीना-मरना जब हाथ नहीं
बेफ़िक्र होकर
ज़िन्दगी-मौत के बीच
तालमेल बनाकर
ख़ूबसूरत जीवन बना लेते हैं लोग
आत्मा अमर है इसी का नाम है
“सत्य”
-अनिता चंद 25/02/ 2018
“कौन कहता है मौत आयेगी तो मर जाऊँगा,
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा”

पंछी

पंछी-

प्रातः नमन चह-चहकना,
फिर अम्बर में उड़ जाना
शाम हुई झुंड बनाकर,
वापस अपने बसेरे का रूख ले,
उसी दरख़्त में समा जाना ।
सुकूँन की साँसें लिए ये दोहराना !
इस धरा पर मेरा भी है आशियाना,
बस ! यह अहसास ही काफ़ी है

डूबती शाम को पनाह मिल जाए,
कर्म ऐसा कर जा ! ऐ इंसाँ,
कि जीवन व्यतीत न हो, बल्कि
मनमोहक जीवन जीने का,
बहाना बन जाऐ !

ईंट-पत्थर से बनता है मकान,
घर बनाने में उम्र गुज़र जाऎ !
ख़ुशहाल बसे निवास की ख़ुशी का
अहसास ही काफ़ी है ।।

बेज़बान पंछी भी जानता है
अपना वो ठिकाना !
दिनभर सैर-सपाटा कर,
छूँकर अम्बर,वापिस पहुँच ही जाता है
जहाँ उसे है जाना !
इन्सान हों, या हों परिंदे,
हाँ, यह अहसास !
धरा पर मेरा भी है आशियाना,
यह अहसास ही काफ़ी है !!

-अनिता चंद /2018

“नया साल” 2018


बदल रहा है साल मेरा,
उमंगों के बुलबुले लेकर,
ख़्वाहिशों के महल बनाऊँ,
ऐसा दिली आरज़ू है मेरी !
समय गतिमान है,
बड़ा ही बलवान है,
समय से बडा ना कोई,
समय !
कभी हँसाता है हमें,
तो कभी रुलाता है हमें,
नई-नई चालें चल,
फिर उन पर ही नचाता है हमें,
भूल जाएं बुरा सब आज,
याद रखें सूख के वो पल,
आओ मिलकर ख़ुशियाँ मनाएँ,
स्वागत करें नूतन वर्ष का हम,
नव वर्ष आपके जीवन में,
इतनी ख़ुशियाँ लेकर आए,
कि आपका जीवन फूलों,
से भर जाए !!
दामन में हों आपके,
ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ
ऐसी कामना मैं
करती हूँ !
नववर्ष मंगलमय हो !!

***-अनिता चंद /2018

“मेला”

“मेला”
दादू मुझको मेला है जाना
पिंटू, ऐना, रॉनू, काना
सबको घूमा लाए उनके मामा
मेले में रोचक झूले हैं आए
खिलौने वाले ने खिलौने हैं सजाए
नाचता बन्दर, हाथी, भालू, जोकर,
मेरे दोस्त सब ख़रीद हैं लाए !

पर मुझको तो एक चौकीदार है लाना
हाँ बस सीटी वाला चौकीदार है लाना
दादू चौंके ! और बोले बेटा
क्यूँ तुमको चौकीदार ही है लाना?
दादू ! मेरी माँ जब जाती है दफ़्तर
मुझको अकेले घर में लगता है डर

चौकीदार मेरी रखवाली करेगा
मैं भूतों की बातें करूँ जो वो
सीटी बजाकर डर को छूमंतर कर देगा
जागते रहो जब वो बोलेगा मैं डर भूलकर
मीठी-मीठी नींद में सपने देखूँगा

माँ भी मेरी ख़ुश होकर बिना चिन्ता के
रोज़ जायेगी अपने दफ़्तर
दादू….! मुझको न गेंद चाहिए, न ही चाहिए बन्दर
मुझको तो चाहिए बस, मेरा एक चौकीदार सिकंदर
दादू मुझको मेला है जाना, बस मेला है जाना
***
-अनिता चंद  /2018

कहीं-कहीं तो जन्म से पहले ही मिट जाती हैं “बेटियाँ”

कहीं कहीं तो जन्म से पहले ही मिट जाती हैं
“बेटियाँ”

चाहो जिसे दिलों जान से, निभाओ भी उसे पूरी शान से,
ये पल तुम्हारा है, कल क्या होगा छोड़ दो
उस परमात्मा पर जिसकी तुम करते हो इबादत

देखा ज़रा नज़दीक से तो आश्चर्य हुआ
अरे…..! हम सबकी ही सखी थी वो
क्या, बिंदास जीती थी हवा में उड़ती थी वो,
अचानक बिखरता देखकर उसको,
दिल हाथों में आ गया हो जैसे वो बिलख रही थी,
गुहार लगा रही थी उसकी शिकायत आज ‘रब’ से न थी
आज तो मंज़र ही कुछ ओर था !

पूछ रही थी, उस शख़्स से वो आज सवाल
जिसने खाईं थी क़समें साथ-साथ निभाने की,
पूछ रही थी उससे मायूस होकर वो,
क्यूँ दिखाया सपना तुमने माँ बनने का मुझको ?
जब तुमको बर्बाद ही करना था, तो क्यूँ किया था आबाद मुझको
मेरी नन्ही सी जान को जन्म से पहले ही
क्यूँ ? मार डाला क्या गुनाह था उसका ?

शानॊ-शौकत में लिप्त वो इंसान उसकी पीड़ा से बेपरवाह हो जैसे,
माँ अपनी बेटी की पीड़ा को ममता के आँचल में समेटे,
ज़िगर मसोस के तड़फ रही हो जैसे
किन्हीं जगहों में तो आज भी जन्म से पहले ही मिट जाती हैं
‘बेटियाँ’
किसी को बेटियाँ नहीं, घर का चिराग़ बेटा ही चाहिए
माँ को हक़ नहीं है जन्म देने का भी
इस दुनिया में रहने का भी,

देखा जब एक बेटी को ‘मिस वर्ल्ड’ का ताज पहने तो
याद आ गयीं उन माँ को अपनी खोई नन्ही सी जान बेटियाँ,
जिनके आने से पहले ही मिट जाते हैं नामो निशान आज भी
देखो……..!
आज साबित कर दिया, एक बेटी ने ‘विश्व सुन्दरी’ का
ये ख़िताब जीतकर,
करती हैं नाम ऊँचा, इज़्ज़त बढाती हैं
वतन की शान में, कुल का नाम, रौशन करती हैं
आज हमारी ही परियाँ, हमारी ही बेटियों
बेटी को बचाना है, बेटी को पढाना है, माता पिता का सहारा हैं, हमारी ये बेटियाँ !

*** -अनिता चंद

लफ़्ज़ों की तलाश

लफ़्ज़ों की तलाश
तुम ख़व्वावों में मिले मुझे
साया-ए-अॿ की तरह
मैं कुछ कह ना सका
बस देखता ही रहा तुमको
अपने से दूर जाते-जाते

कुछ अनकहा सा दिल में दफ़्न है
आज भी
जिसकी कसक रहती है
हरदम मेरे सीने में

सोचता हूँ कहूँ, पर कैसे कहूँ
अल्फ़ाज़ नहीं मिलते
तलाश लफ़्ज़ों से करूँ
तो अहसास नहीं मिलते

काश एक बार फिर मिल जाओ
ख़ुर्शीद की चमक की तरह
मैंने लफ़्ज़ों को पिरोया है तेरे लिए
पूजा है तुझे
असनाम-परस्ती की तरह

मेरे हमदम, मेरे दोस्त दिखाना है
असरारे हाले दिल तुझे
है तुझमें तसब्बुर खुदा का
बताना है ये तुझको
मोहब्बत-ए-जज़्बातों को दिखना है तुझे
मैंने तरासे हैं लफ़्ज़ सिर्फ़ तेरे लिए

-अनिता चंद 7/02/2018

दुश्मनों के हाथों कैसे दे दूँ मैं !🇮🇳

दुश्मनों के हाथों कैसे दे दूँ मैं !🇮🇳

अपने कश्मीर जैसे सरताज को,
जिसकी आबोहवा में हिंदुस्तान की साँसे बसती हों।
🇮🇳
करते गर्व से सिर ऊँचा हम,
अपने भारत महान पर,
जहाँ सत्य,अहिंसा,धर्म और वीरों की
गाथाऐं गाई जाती हों ।
🇮🇳
जिसकी मिट्टी में खेले कूदे,
पले बड़े, भाई वीर जवान मेरे,
सियाचिन की बर्फ़ीली चोटियों में,
न्यूनतम तापमान सहकर भी हमारी सुरक्षा करते हों।
🇮🇳
जहाँ प्रकृति अपना आँचल फैलाए,
प्यार ही प्यार बरसाती हो,
तीजत्योहारों का मिलन हो जहाँ,
हर रिश्ते को एक धागे में बुनता हो।
🇮🇳
पवित्र नदियों के मिलन से,
पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण
भिन्नताओं में एकता का सूत्र जोड़कर,
अपनी परम्पराओं का अनूठा संगम का दम भरता हो।
कैसे दे दूँ मैं अपनी आन,बान, शान को
यूँ ही कैसे !🇮🇳
-अनिता चंद

 

आग़ाज़

“महिला दिवस”
आग़ाज़ !!
बुलंदियों को छूना है मुझको
खोलने हैं बन्द दरवाज़े
तोड़नी हैं दीवारें के बन्धन
आज़ाद होकर खुली हवा में
पंख पसरने हैं मुझको,
मगर ! मेरी अभिलाषा का
आग़ाज़ होगा कब?

जननी हूँ, स्नेहभरी नारी हूँ,
सृष्टि अधूरी है मुझ-बिन
जानती हूँ ये सब मगर
हौंसले कमज़ोर हों तो,
नवजीवन का आग़ाज़ कैसा ?

तेरे, रीति-रिवाजों ने
कमज़ोर बना दिया है मुझको,
चाहूँ अगर बदलना देनी पड़ती है,
अग्नि परीक्षा मुझको,
कठपुतली बनाकर रखा है
तोड़ना है हर एक बन्धन,
पर इन आडंबरों से लड़ने का
साहस कब होगा?

पखेरू उड़ता ये मन सहसा
आह्वान कर उठा एक रोज़
पूछ बैठा ख़ुद से, ख़ुद ही
इंतज़ार किसका करती है ‘तू’
क्यूँ घुट-घुट के मरती है तू,
ये जन्म-जन्मों के बंधन हैं
कोई ना आएगा तुझे जगाने,
उठ जाग नींद से, पहचान अपने को
तोड़े दे ये बंधन सारे !

तब आग़ाज़ हुआ नव जीवन का,
अंतरात्मा से निकली ये ध्वनि,
तू शक्ति है, तू भक्ति है,
तू कुछ भी कर सकती है,
तू कमज़ोर नहीं, तू लाचार नहीं,
तू सम्पूर्ण सृष्टि है !

मुक्त हुई उस मोह-माया से,
तब प्रण किया स्वयं से,
नव जीवन का आरम्भ यही है,
हर पहलू को करना है सार्थक,
अब खिल-खिलाकर हँसती हूँ मैं,
उन बन्द दरवाज़ों में भी
बे-परवाह महसूस करती हूँ मैं,
नित्य नए उमंग लिए झूमती हूँ,

आज की नारी हूँ मैं,
मेरा पुनरुत्थान यही है,
सूरज की किरणों की चमक से,
नवनिर्मित उदित सार्थक ये जीवन
इस जीवन का आग़ाज़ यही है
– अनिता चंद

अंतर्मन

अंतर्मन

अंतर्मन को छुआ ही था, कि चल दिए !
आए थे, तो कुछ पल साझा कर लेते,
देख तुम्हें आँखों को ऐतबार तो हो पाता,
दिल के कोने का, सूनापन
अभी हल्का भी ना हुआ था,
कि मुँह मोड़ा और चल दिए !
रुक लेते अगर पलभर,
तो दिल को तसल्ली से,
बहलाने के कुछ बहाने मिले गए होते,
मुस्कुरा लेते, बह लेते उन पलों में, ‘पर’!
तुम तो आए, अंतर्मन को हिलाया,
उम्मीद बनाई, आस जगाई और चल दिए !
– अनिता चंद

बदलते एहसास


बदलते एहसास
‘मेरी गली के चौरहे पर
जमकर ‘जमघट’ हुआ करता था
घड़ियाँ न थीं कलाईयों में
हर आने जाने वाली रेलगाड़ी से
पहर का अनुमान हुआ करता था,
टेलिविज़न नहीं थे हर घर में फिर भी पुराना ज़माना
सारे दुनिया की ख़बरों पर मिलकर
विचार विमर्श हुआ करता था,
शरारते तो तब भी किया करते थे हम,
पर हर आँख में बुज़ुर्गों की नज़रों का
लिहाज़ हुआ करता था,
कौन बनेगा, कौन लायक है
हर घर के आँगन की आवाज़ों से ही
अनुमान लगा करता था, नया दौर
पैसे का महत्व तो था तब भी
पर, प्यार का कोई मोल न था
दिलों में पैसे की जगह
प्यार बसा करता था,
कठिनाईयाँ भरी थी ज़िन्दगी
पर हर तीज- त्यौहारों में खुलके
हर्ष उल्लास का एहसास हुआ करता था,
लाउड्स्पीकर के गाने से, आवाज़ॊं से
शादी-विवाह का पैग़ाम मिला करता था,
नानी, दादी का दुलार किसी एक से नही
सारे जमघट से स्नेह का स्पर्श मिला करता था,
इंटरनेट का ‘आई’ मतलब मैं-मैं न था
‘वी’ में हम-हम में सारा चौरहा समाया करता था
मेरी गली के चौराहे पर जमकर ‘जमघट’ हुआ करता था
तेरे-मेरे का भेद न था
बस अपनेपन और बंधुत्व के अहसास में ही
प्यार, सम्मान और स्नेह, बसा करता था,
– अनिता चंद